कोहरे की रातों में कुल्हड़ से उठते भाप का ज़ायका ही कुछ और था…
काश! ज़िन्दगी के इन चोंचलों की जगह
ख़ुशनुमा उम्मीद की एक राय होती…
काश! कुल्हड़ की वो चाय होती
काश! वो दौर होता
जब सड़क किनारे खड़े होकर
देश-दुनिया की सियासत की
बातें करते थे
यक़ीन मानिए!
धूल से लथपथ सड़क पर
अपने देसी दोस्तों के साथ खड़े होकर
चाय पीने का मज़ा ही कुछ और था
कोहरे की रातों में कुल्हड़ से उठते भाप का
ज़ायका ही कुछ और था
मंज़िल के क़रीब जाकर भटके जिससे
वो रास्ता ही कुछ और था!
— Afroz Alam Sahil
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