कल रात रूक रूक कर

बरसती बारिश की हर बूंद

कई घावों को सब्ज़ कर गई

रात की ख़ामोशियों को तोड़कर

तकलीफ़ का जलता लफ़्ज़ बन गई

 

बेमौसम से आलम में

बारिश की बूंदें

रूह से बातें करती रहीं

ये अनाम गुफ़्तगू

कल दिन से शुरू होकर

पूरी रात चलती रही…

 

होंठ बुदबुदा रहे थे

चेहरे पर तकलीफ़ घिर रही थी

लगा जैसे बारिश

श्मशानों में जलती चिताओं को

अब बुझा देने की

बात कर रही थी…

वे भी अब नहीं चाहते थे कि

चिताओं से उठता धुंआ

आसमानों तक पहुंचे

और बादलों को रूलाए…

 

शायद क़ब्रिस्तानों में

उठती धूल को

अपनी जगह पहुंचा देना

वे चाह रहे थे… 

ताकि क़ब्रों को भी

अब ठंडक मिले

उनके भीतर दफ़न हुई मिट्टी को

थोड़ा आराम, थोड़ी राहत मिले…

 

इधर मेरी आंखों के आसमान पर भी

यादों के बादल छाए हुए थे…

जो एक-एक कर

उन तमाम लोगों के लिए

बरस रहे थे,

जिन्हें मैंने पिछले कुछ

महीनों में खो दिया है…

मैंने इन महीनो में शायद

अपने आपको भी खो दिया है

 

ये तो तय है कि

अब वे न मिलेंगे दोबारा

शायद मैं भी दोबारा न मिलूं

अपने आप को!

एक पल को ऐसा लगा कि

आंखों के बादल

और बारिश की बूंदें

एक साथ बरस रही हैं…

 

इन बरसते बादलों के दरम्यान

ख़ुद की तकलीफ़ों

मौत से जंग लड़कर

वापस आने के अहसासों के साथ

कब नींद की आग़ोश में चला गया

पता ही नहीं चला…

 

सुबह जब बेदार हुआ

तो आसमान साफ़ था

धूप ऐसे खिलकर

मुस्कुरा रही थी

जैसे उसे अब कोई ग़म ही न हो

 

धूप की इस रोशनी ने

दिलों को भी रोशन किया

और आंखों में भी एक उम्मीद जागी

कि शायद ऊपर वाला अब रहम कर दे

कोई अपना यूं ये दुनिया छोड़कर न जाए…

मेरे सीने का दर्द

सदा के लिए चला जाए

इन आँखों के बंद होने से पहले

उजाला इनमें लौट आए… 

 

काश,

अब इन आंखों की बारिश

भी रूक जाए…

इन्हें भी आसमान की तरह

कोई ग़म न हो…

ऐ ख़ुदा, या फिर

ऐसी बारिश कर दे

कि क़यामत ही आ जाए

जो अपने साथ हमेशा के लिए

ये आफ़त ले जाए…

फिर इंसानियत की आंख

खुशी से छलछलाए

फिर ये ग़मो की गर्द

हमेशा के लिए धुल जाए!

©Afroz Alam Sahil #AfrozKiNazm

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