रोज़ ही तो होता है ये
रोज़ ही
न जाने कितने लोग
अपने घर से भागते हैं
रातों को फुटपाथों पे जागते हैं
कभी अपनी मुहब्बत की चाहत में
कभी पेट के सवाल पर
कभी रोटी की आहट में
वो शख़्स भी एक दिन
ऐसे ही निकल गया था
घर छोड़कर
अपनों से मुंह मोड़कर
न जाने किस बात पर
वालिद से झगड़ गया
अपने बाप से लड़ गया
अपने आप से अड़ गया
लेकिन भागा वो था
हक़ीक़त नहीं भागी थी
वो हक़ीक़त जो उसे इस दुनिया का
एहसास कराने के लिए काफ़ी थी…
फिर एक रोज़ उसे ये एहसास हुआ
कि इस दुनिया में बाक़ी सब भरम है
बस पैसा ही इंसान का मरम है
फिर इसी मरम की चाह पर
वो निकल पड़ा आर्मी कैंटीन की राह पर
राह के कांटे धीरे-धीरे दूर हुए
उसकी मेहनत के सैंडविच
उसके क़िस्सों की तरह ही मशहूर हुए
इस दुनिया से कूच कर चुका ये शख़्स
शायद आया ही था
इतिहास बनाने को
कुछ अलग कर जाने को
इस शख़्स की झोली में इतिहासों का पुलिंदा था
उस दौर में जब मुल्क ग़ुलाम था
जब हर देशवासी शर्मिंदा था
उस दौर में
जब आज़ादी के दीवाने
मुल्क की आज़ादी के लिए
गोरे अंग्रेज़ों से लड़ रहे थे
उस वक़्त भी ये शख़्स
अपनी ज़ुबां से एक इतिहास रच रहा था
उसकी स्पीच से भड़के हुए
सारे गोरे उसके पीछे पड़ गए थे
उसे जेल की सलाख़ों में डाल दिया गया
इंक़लाब के जुनून को जीता ये शख़्स
अब गांधी की राह का राही था…
आज जब पूरी दुनिया को इस शख़्स पर नाज़ है
उस दौर में ये नफ़रत के कुछ सौदागरों की आवाज़ है
कि उन्हें इनके मरने के बाद भी चैन नहीं है
कह रहे हैं कि कमाने के लिए
एक मुसलमान ने हिन्दू नाम रख लिया
अपना ईमान गिरवी कर दिया
और न जाने क्या क्या…
अब इन्हें कौन बताए
ये शख़्स वाक़ई बेमिसाल था
हर मामले में बाकमाल था
ये शख़्स मरकर भी ज़िन्दा है
ये लोग जीकर भी मर चुके हैं
आज सच में एक युग का अंत हो गया
आज सच में नियति के क़दम थम गए हैं!