हे गंगा!
तुम्हारे तट पर कितनी ही सभ्यताओं ने आंखें खोलीं
तुम्हारे साफ़ पानी के आचमन में
कितनी ही पीढ़ियों के पाप धुले
पर ये अचानक क्या हुआ
तू हरी कैसे हुई
और इतनी मटमैली!
कि जैसे हड़प्पा की गोद में बिखरा
कोई मिट्टी का टीला
कहां है वो तेरा पुत्र
जिसे तूने बुलाया था
जो तेरे कहने पर बनारस आया था
जिसने यहां तेरे नाम पर वोट पाया था
क्या तुझे साफ़ नहीं कर पाया?
या ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाया?
या फिर तेरे नाम पर
जो परियोजनाएं चलाई गईं
सब पर घोटालों की फफूंद जम गई?
तुझे साफ़ करने के नाम पर
कमाई की दुकानें खुल गईं?
थोक के भाव में
बेईमानों की मचानें तन गईं?
क्या तेरी सफ़ाई को लेकर
जो तमाम दावे व वादे थे…
वो कागज़ों पर ही दम तोड़ गए?
क्या कलियुग के भगीरथ
आस्था को भी चुनाव की चक्की में पीस गए?
और हां, तूने कितनी लाशें अपने में समाई हैं?
कितनों ने तेरे दामन में गिरकर जानें गंवाई हैं?
सुनो, बनारस की संतानों
गाज़ीपुर के किसानों
इलाहाबाद के जवानों
बक्सर के निगहबानों
सुनो मां गंगा के बेटों,
ग़लती से ये सारे सवाल
इस मां के उस तथाकथित बेटे से मत पूछ लेना
देशद्रोही क़रार दिए जाओगे
क़ानून की चक्की में पिस जाओगे!
पता नहीं ये पानी हरा हुआ है
या फिर पानी भी डरा हुआ है
अब तो चुनाव भी क़रीब है
जांच के लिए कमिटी भी बना दी गई है
जल्द ही इसे हरी साज़िश क़रार दिया जाएगा
फिर इसी साज़िश को बंद फ़ाइलों में घर मिल जाएगा.