रात को मेरा शहर कितना बड़ा हो जाता है

एकदम बूढ़ी गंडक के पानी सा…

इतिहास की तैरती नावों की क़तारों सा

 

चौड़ी और फैली फैली सड़कें…

हॉर्न की चिलम पों से दूर, ख़ामोश सोते रास्ते

वक़्त की किसी ख़ामोश सी नदी में 

जैसे अलसाए लम्हों का कोई कमल खिला हो

 

बाज़ार सब सोए पड़े हैं

बाज़ार में दो क़रीब की मीनारें

ऐसी औंधे मुंह लेटी हुई हैं

मानो आपस में बातें कर रही हो

और हम पर मोहब्बत की रोशनी बिखेर रही हों

 

काश! ये शहर दिन के वक़्त भी ऐसा ही होता

शांत, ख़ामोश, मुस्कुराता सा

मोहब्बत की मीनार चूम आता सा

 

काश! हममें ज़्यादा ऊंचे होने का एहसास न होता

नफ़रत ग़ुरूर वाला क़िस्सा, हमें याद न होता 

चलो! अच्छा है कि कम से कम ये पागल लोग

दिन भर हिन्दू-मुसलमान करके सो तो रहे हैं

इंसानियत की सूखी कसक

नींद में भिगो तो रहे हैं

 

काश! इन्हें अहसास होता कि

ऊपर वाले ने इन्हें पहले इंसान बनाया है

अपने सपनों का ईमान बनाया है 

 

इनसे बेहतर हैं ये थकी मांदी इमारतें 

जो सारा दिन रस्तों की पहचान कराकर

हौले हौले से सारी नफ़रतों को सुलाकर

अब अपनी आंखों में 

सुकून का काजल डालकर सो गई हैं

 

यही शहर मेरा मक़सद है

यही शहर मेरा ईमां है

 

अच्छा सुनो!

दिन वाला शहर तुम रख लो

मेरे हिस्से इस रात की रजिस्ट्री कर दो!

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