रोटी-दाल… या फिर अबीर गुलाल?

भारत… यहां तो हर दिन होली है!   आतंकी खेलते हैं बेगुनाहों के ख़ून से तथाकथित गौ-रक्षक मुसलमानों के ख़ून से और ‘देशभक्त’ व ‘दंगाई’ अपनों का ही लाल रंग बेरंग पानी में बहा देते हैं!   कोई सुबह ऐसी नहीं… जब ख़बरों में छाया नोटों का रंग या दहेज़ के सोने का पीलापन किसी […]

अच्छा सुनो! मेरे हिस्से इस रात की रजिस्ट्री कर दो!

रात को मेरा शहर कितना बड़ा हो जाता है एकदम बूढ़ी गंडक के पानी सा… इतिहास की तैरती नावों की क़तारों सा   चौड़ी और फैली फैली सड़कें… हॉर्न की चिलम पों से दूर, ख़ामोश सोते रास्ते वक़्त की किसी ख़ामोश सी नदी में  जैसे अलसाए लम्हों का कोई कमल खिला हो   बाज़ार सब […]

एक कबूतर, जिसने ख़ुद को फांसी लगा लिया था!

आज सुबह मेरी ज़िन्दगी की सबसे भारी सुबह थी मैंने अपने बालकनी से सामने की छत पर एक अजीब नज़ारा देखा   एक कबूतर  जिसने ख़ुद को फांसी लगा लिया था अब उसकी लाश लटक रही थी   दिल हैरान था रुह परेशान थी पर जो देखा था वो सोलह आने सच था   जी, […]

मेज़ पर मौजूद ये किताब क्या कर रही है?

बंदुकों के साए तले मेज़ पर मौजूद ये किताब क्या कर रही है? इंसानियत को क्यूं बेपर्दा कर रही है?   कुछ पल के लिए ये किताबें  मुझे गुमराह कर रही हैं… मेरे सुकून को तबाह कर रही हैं   ज़ेहन में कई सवाल आ रहे हैं आख़िर ये किताब किसकी होगी? क्या इस किताब […]

आज़ादी के वो दिन… एक न एक दिन ज़रूर लौटकर आएंगे

15 अगस्त… आज़ादी का दिन मेरी ज़िन्दगी का बेहद ख़ास दिन रहा है ये मेरे बचपन के सपनों का एहसास रहा है ये सुबह 4 बजे उठ जाना फिर तिरंगा लहराने की ख़ुशी मनाना मादरे वतन को गाना दिल का कभी अशफ़ाक कभी बिस्मिल हो जाना!   पर फ़िज़ा में अभी छाया है अंधेरा सूरज […]

दिलीप कुमार की याद में मेरी एक नज़्म…

रोज़ ही तो होता है ये रोज़ ही  न जाने कितने लोग अपने घर से भागते हैं रातों को फुटपाथों पे जागते हैं कभी अपनी मुहब्बत की चाहत में कभी पेट के सवाल पर कभी रोटी की आहट में  वो शख़्स भी एक दिन ऐसे ही निकल गया था घर छोड़कर अपनों से मुंह मोड़कर  […]

नई सुबह होगी और जल्दी होगी…

क्या कहा? पिंजरा तोड़ दिया? बग़ावत की आरी से कुछ काटा कुछ जोड़ दिया! अरे, ये ख़तरनाक षडयंत्र अकेले नहीं हो सकता है वो ‘तनहा’, मासूम सा लड़का इतना बड़ा काम कैसे कर सकता है? अच्छा! धूप की इस साज़िश में कुछ बग़ावती खिड़कियां भी थीं वो अकेला कब था? ‘पिंजरा तोड़’ वाली दो लड़कियां […]

हे गंगा! कहां है वो तेरा पुत्र, जिसे तूने बुलाया था…

हे गंगा! तुम्हारे तट पर कितनी ही सभ्यताओं ने आंखें खोलीं तुम्हारे साफ़ पानी के आचमन में कितनी ही पीढ़ियों के पाप धुले पर ये अचानक क्या हुआ तू हरी कैसे हुई और इतनी मटमैली! कि जैसे हड़प्पा की गोद में बिखरा कोई मिट्टी का टीला कहां है वो तेरा पुत्र जिसे तूने बुलाया था […]

हम ही हमेशा रास्ते में कैसे आते हैं?

वो शहर का एक कोना था जहां कुछ पेड़ सुकून की सांसों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे अपनी छांव की ख़ुशियां बांटकर ज़िन्दगी का क़र्ज़ उतार रहे थे… तभी एक साहब को ख़ुमार आया वहां आलीशान महल बनाने का बुख़ार आया निशाने पर ये पेड़ आ गए साहब ने कहा, उखाड़ डालो इन्हें […]

तो शायद! आज हम नहीं मरते…

एक रात… मच्छरदानी के अंदर दिन भर की थकान के बाद सोने की कोशिश में था होश खोने की ख़्वाहिश में था और वैसे भी जागती आंखों में बेहोश होने से बहुत अच्छा है कि आंख बंद कर बेहोश हो लिया जाए आधी रात बीत चुकी थी सोशल मीडिया पर ‘क्रांति’ करते करते ख़ुद पर […]