बंदुकों के साए तले

मेज़ पर मौजूद ये किताब क्या कर रही है?

इंसानियत को क्यूं बेपर्दा कर रही है?

 

कुछ पल के लिए ये किताबें 

मुझे गुमराह कर रही हैं…

मेरे सुकून को तबाह कर रही हैं

 

ज़ेहन में कई सवाल आ रहे हैं

आख़िर ये किताब किसकी होगी?

क्या इस किताब को 

ये हथियारों से लैस लोग लेकर आए होंगे?

 

नहीं, नहीं… 

उन्हें किताबों से क्या मतलब?

लहू बहाने की हवस को स्याही से क्या मतलब?

 

ज़रूर इस किताब को 

राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी छोड़ गए होंगे

लेकिन वो क्यों छोड़ गए?

क्या उन्हें अब इस किताब की ज़रूरत नहीं थी?

या फिर शायद उन्हें भागने की जल्दी होगी

 

या ये भी हो सकता है कि

उन्होंने इस किताब को अहम न समझा हो

सिर्फ़ सत्ता का कोई वहम समझा हो!

 

या यह भी हो सकता है 

कि शायद कोई! 

इस किताब को छोड़ गया हो

और इन हथियार-धारियों ने रहने दिया हो

पर आख़िर इन्हें किताब से क्या मतलब?

आख़िर इन्हें किताबों से क्या डर?

 

सुना है कि 

वो लड़कियों को पढ़ने नहीं देते

मतलब किताबों से डरते तो होंगे ज़रूर

फिर इस किताब से क्यों नहीं डरे?

 

कुछ तो है जो समझ से परे है

कुछ तो है जिससे वक़्त भी डरे है

वैसे भी जब हथियार गरजते हैं तो

किताबें कुछ वक़्त के लिए ख़ामोश हो जाती हैं

 

लेकिन उन्हें क्या पता

ये ख़ामोश किताब

आने वाले दौर में 

सब कहानी बयान करेगी

इनकी सब हक़ीक़त से पर्दा उठा देगी

 

और हां, 

हथियारों से आज़ादी का रास्ता भी

इन्हीं किताबों से निकलता है…

 

आज की रात उनकी है

पर कल का सूरज इन्हीं किताबों से उगता है

मुझे पूरी उम्मीद है

एक दिन इन्हीं किताबों में

इनकी करतूतें क़ैद होंगी

आने वाली नस्लों के लिए

काली रातें, सुफ़ैद होंगी!

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